जनकपुर में बारातियों का स्वागत

जनकपुर में बारातियों का स्वागत   

   जनकपुर में बारातियों का स्वागत , बारात ऐसी बनी कि उसका वर्णन करते नहीं बनता।

सुन्दर शुभदायक शकुन हो रहे हैं।

तीनों प्रकार की शीतल, मंद , सुगंधित हवा अनुकूल दिशा में चल रही है।

स्वयं सगुण ब्रह्म जिसके सुन्दर पुत्र हैं, उसके लिए सब मंगल शकुन सुलभ हैं

जहाँ श्रीराम चन्द्र जी सरीखे दुल्हा और सीता जी जैसी दुल्हन है तथा दशरथ जी और जनक जी जैसे पवित्र समधी हैं।

ऐसा ब्याह सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे और कहने लगे- अब ब्रह्मा जी ने हमको सच्चा कर दिया।

इस तरह बारात में प्रस्थान किया। घोड़े, हाथी गरज रहे हैं और नगाड़ों पर चोट लग रही है।

 

“आवत जानि भानुकुल केतू सरितन्हि जनक बँधाए सेतू।

बीच बीच बर बास बनाए सुरपुर सरिस संपदा छाए।।”

 

सूर्यवंश के पताका स्वरूप दशरथ जी को आते हुए जानकर जनक जी ने नदियों पर पुल बँधवा दिये ।

बीच बीच में ठहरने के लिए सुन्दर घर बनवा दिए।

जिनमें देव लोक के समान संपदा छायी है और जहाँ बारात के सब लोग अपने – अपने मन की पसंद के

अनुसार सुहावने उत्तम भोजन और बिस्तर पाते हैं।

बडे़ जोर से बजते हुए नगाड़ों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आती हुई

जानकर अगवानी करने वाले हाथी , रथ , पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले।

“कनक कलश कोपर थारा भाजन ललित अनेक प्रकारा ।
भरे सुधासम सब पकवाने नाना भाँति न जाहिं बखाने।।”

दूध, शर्बत, ठंढाई, जल आदि से भरकर सोने के कलश तथा जिनका वर्णन

नहीं हो सकता ऐसे अमृत के समान भांँति – भाँति के सब पकवानों से भरे हुए परात,

थाल आदि अनेक प्रकार के सुन्दर बर्तन राजा ने हर्षित होकर भेंट के लिए भेजी ।

गहने – कपड़े नाना प्रकार की मूल्यवान मणियों तथा बहुत प्रकार के सुगन्धित सुहावने सगुन के पदार्थ राजा ने भेजे।

 

“बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं मुदित देव दुंदुभी बजावहिं।

बस्तु सकल राखीं नृप आगें बिनय कीन्हीं तिन्ह अति अनुरागें।।”

 

देव सुन्दरियां फूल बरसाकर गीत गा रही हैं, और देवता आनंदित होकर नगाड़े बजा रहे हैं।

अगवानी में आए हुए लोगों ने सब चीजें दशरथ जी के आगे रख दीं ।

इसके पश्चात पूजा , आदर – सत्कार और बड़ाई करके अगवान लोग उनको जनवासे की ओर ले चले।

सीता जी ने बारात जनकपुर में आयी जानकर अपनी कुछ महिमा प्रकट करके दिखलाई।

हृदय में स्मरण कर सब सिद्धियों को बुलाया और उन्हें राजा दशरथ की मेहमानी करने के लिए भेजा।

पिता दशरथ के आने का समाचार सुनकर दोनो भाइयों के हृदय में महान आनंद समाता न था।

संकोच वस वे गुरु विश्वामित्र जी से कह नहीं सकते थे परन्तु मन में पिता जी के दर्शन की लालसा थी।

तब विश्वामित्र जी ने उनको बड़ी नम्रता से देखा और वे दोनो भाइयों को साथ लेकर उस जनवासे को चले जहाँ दशरथ जी थे।

“भूप बिलोकि जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।

उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत।।”

 

जब राजा दशरथ ने पुत्रों सहित मुनि को आते हुए देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में थाह – सी लेते हुए चले।

पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरण धूलि को बारंबार सिरपर चढ़ाकर उनको दण्डवत् प्रणाम किया।

विश्वामित्र जी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल पूछी।

फिर उन्होंने वसिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठ प्रेमके आनन्द में उन्हें हृदय से लगा लिया।

दोनों भाइयों ने सब ब्राह्मणों की वन्दना की और मनभाये आशीर्वाद पाये।

“पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।

मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत।।”

 

तदनन्तर परम कृपालु और विनयी श्री राम चन्द्र जी अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों , जाति के लोगों याचकों सभी से यथा योग्य मिले।

 

“रामहि देखि बरात जुड़ानी प्रीति कि रीति न जाति बखानी।

नृप समीप सोसहिं सुत चारी जनु धन धरमादिक तनुधारी।।”

श्री राम चन्द्र जी को देखकर बारात शीतल हुई।

प्रीति की रीति का बखान नही हो सकता राजा के पास चारो पुत्र ऐसी शोभा पा रहे हैं मानो अर्थ, धर्म ,

काम और मोक्ष शरीर धारण किये हुए हैं।

अगवानी में आये हुए सतानंद जी , अन्य ब्राह्मण, मंत्री गण , विद्वान और भांटों ने बारात सहित

राजा दशरथ जी का आदर सत्कार किया।

बारात लग्न के एक दिन पहले आ गयी है।

इससे जनकपुर में अधिक आनंद छा रहा है।

श्रीरामचन्द्र जी और सीता जी की सुन्दरता की सीमा है।

जनक जी के पुण्य की मूर्ति जानकी जी हैं और दशरथ जी के सुकृत देह धारण किये हुए श्रीराम जी हैं।

इन दोनो राजाओं के समान किसी ने शिव जी आराधना नही की और न इनके समान किसी ने फल ही पाये।

जनकपुर की स्त्रियां लक्ष्मण और शत्रुघ्न की सुन्दरता का बखान करते हुए कहती हैं कि

हे सखी जैसे राम लक्ष्मण की जोड़ी है वैसे ही दो कुमार राजा के साथ और भी हैं।

वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नही है।

जनक पुर की स्त्रियां आंचल फैलाकर विधाता को यह वचन सुनाती हैं कि चारो भाइयों का विवाह इसी नगर में हो

और हम सब सुंदर मंगल गावें।

सीता जी के स्वयंवर में जो राजा आये थे उन्होंने भी चारो भाइयों को देखकर सुख पाया।

श्रीराम चन्द्र जी का निर्मल और महान यश कहते हुए राजा लोग अपने- अपने घर चले गए।

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 || जय श्री सीता राम || 

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