यहाँ प्रस्तुत रामचरितमानस अयोध्याकाण्ड का शुरुआती भाग है, जिसमें कुछ श्लोक और दोहा हैं।
श्रीगणेशायनमः
श्रीजानकीवल्लभो हवजयते
श्रीरामचररतमानस
हितीय सोपान
श्री अयोध्या काण
1. श्लोक:
“यस्याङ्के च विभवति भूधरसुतादेवी पगे मस्तके…”
अर्थ: जिस भगवान की गोद में हिमालय की पुत्री पार्वती शोभायमान हैं, जिनके मस्तक पर पवित्र गंगा बह रही है, ललाट पर चंद्रमा विराजमान है, और गले में विष भरा है; जिनके वक्षस्थल पर सर्प का हार है, शरीर पर भस्म लगी है, जो देवताओं में भी श्रेष्ठ हैं, सबके ईश्वर हैं, भक्तों की रक्षा करने वाले हैं, सम्पूर्ण जगत में व्यापक हैं, कल्याण स्वरूप हैं और चंद्रमा की तरह शीतल हैं — वे भगवान शंकर सदा मेरी रक्षा करें।
2. श्लोक:
“प्रसन्नया यस्य विलोक्य दीक्षितं…”
अर्थ: जिस समय श्रीराम का राजाभिषेक (राज्याभिषेक) होना था, उस समय उनके सुंदर मुखकमल को देखकर सभी प्रसन्न हो गए, और कैकेयी को छोड़कर बाकी सबके दुःख दूर हो गए। वही श्रीराम का सुंदर मुखकमल मेरे लिए सदा शुभ और मंगलदायक हो।
3. श्लोक:
“नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गम्…”
अर्थ: जिनका शरीर नीले कमल की तरह श्याम और कोमल है, जिनके साथ सीता माता हैं, और जिनके हाथों में अमोघ बाण और सुंदर धनुष है, ऐसे रघुकुल के स्वामी श्रीराम को मैं श्रद्धा से नमस्कार करता हूँ।
दोहा:
“श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुर सुधारि।
बरनऊँ रघुवर बिमल जसु जो दायक फल चारि॥”
अर्थ: मैं अपने मन रूपी दर्पण को गुरु महाराज के चरणकमलों की धूल से स्वच्छ करके, अब श्रीरामचंद्रजी के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — चारों फलों को देने वाला है।
चौपाई :
“जब ते रामु आयसु घर भाई।
भइं मंगल मोद बधाई॥
भुइं चउदिस भूधर भारी।
सुकृत मेघ बरसहिं सुख बारी॥”
अर्थ: जबसे श्रीराम वनवास से लौटकर अयोध्या आए, तभी से सारे नगर में शुभ कामनाएँ, उत्सव और हर्षोल्लास का माहौल बन गया। ऐसा लगने लगा जैसे चारों दिशाओं में पुण्य के बादल उमड़-उमड़ कर सुख की वर्षा कर रहे हों।
चौपाई:
“ऋद्धि-सिद्धि संपत्ति सुहाई।
उमगि अधि अम्बुधि कहुँ आई॥
मनि पुर नर नारि सुसज्जित।
सुविचार अमोल सुंदर सब भाँति॥”
अर्थ: समृद्धि, सिद्धियाँ और संपत्तियाँ लहरों की तरह उमड़-उमड़कर अयोध्या नगरी रूपी समुद्र में समा गईं। नगर के सभी स्त्री-पुरुष आभूषणों से सजे हुए हैं और उनके विचार इतने सुंदर और मूल्यवान हैं कि उन्हें खरीदा नहीं जा सकता।
चौपाई :
“कवि न कहइ कछु नगर विभूति।
देखि सकल ब्रह्मा सरस्वती॥
सब विधि सब पुर लोग सुखारी।
रामचंद मुख चंदु निहारी॥”
अर्थ: अयोध्या की भव्यता को कोई कवि भी पूरी तरह नहीं कह सकता, यहाँ तक कि ब्रह्मा और सरस्वती भी देखकर चकित रह जाते हैं। नगर के सारे लोग श्रीरामचंद्र के चंद्रमा जैसे सुंदर मुख को देखकर आनंदित और संतुष्ट हैं।
चौपाई :
“मुदित मनुज सब सखी सनेही।
फलित बिलोकि मनोर्थ बेही॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ।
प्रमुदित होइ देखि सुबाऊ॥”
अर्थ: सभी लोग, सखियाँ और उनके प्रियजन अपने मन की इच्छाओं को पूर्ण होता हुआ देखकर बहुत प्रसन्न हैं। राजा दशरथ भी श्रीराम के सुंदर रूप, गुण, अच्छे स्वभाव और शील को देखकर अत्यंत हर्षित हो रहे हैं।
दोहा:
“सब केंउर अभिलाषु अस,
कविनायक मुनिसूर।
आपु उचित सुब सरिस पद,
रामहि देउ सरूर॥”
अर्थ: नगर के सभी लोगों की यही अभिलाषा थी, और विद्वान-मुनि भी यही चाहते थे कि राजा दशरथ अब स्वयं सही समय पर राज्य का भार रामचंद्र को सौंप दें।
चौपाई :
“एक समय सब सवँरि समेता।
रहसि रघुकुल रबि सुधि जेता॥
सकल सुकृत मूरति कर जोई।
राम सुभ सुभग अवनि उछोई॥”
अर्थ: एक दिन जब राजा दशरथ पूरी राजसभा के साथ बैठे थे, तब उन्होंने यह विचार किया कि श्रीराम समस्त पुण्य के मूर्त रूप हैं और उनका शुभ यश पृथ्वी भर में फैल चुका है।
चौपाई :
” नृप सबहि करि अभिलाषा।
लोकप करवि प्रीति रुख राखा॥
जिन्ह जीव काल सम नाहीं।
भूरि भाग दशरथ सम ताहीं॥”
अर्थ: राजा दशरथ ने सब पर कृपा करते हुए यह इच्छा जताई कि राम को राजा बनाया जाए। जिनके जीवन में मृत्यु या समय का भय नहीं है, ऐसे सौभाग्यशाली दशरथ ही हैं।