सीता जी की विदाई , मंगल की राशि शुभ शकुन हो रहे हैं।
विवाह के कुछ दिनों के बाद जनकपुर में व्यतीत करने के बाद राजा दशरथ जी ने जनक जी के स्नेह, शील ,
करनी और ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना करते हैं प्रतिदिन सबेरे उठकर अयोध्या नरेश विदा मांगते हैं
पर जनक जी उन्हें प्रेम से रख लेते हैं। इस प्रकार बहुत दिन बीत गये तब विश्वामित्र जी और शतानंद जी ने जाकर जनक को समझाकर कहा-
“अब दशरथ कहँ आयसु देहू, जद्दपि छाड़ि न सकहु सनेहू।
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए ,कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए।।”
यद्दपि आप स्नेह नहीं छोड़ सकते तो भी अब दशरथ जी को आज्ञा दीजिए।
हे नाथ, बहुत अच्छा कहकर जनक जी ने मन्त्रियों को बुलवाया। वे आये और जय जीव कहकर उन्होंने मस्तक नवाया।
जनकपुरवासियों ने सुना बारात जाएगी, यह सुनकर सब उदास हो गए। जनक जी ने अपरिमित दहेज दिया,
जो कहा नहीं जा सकता और जिसे देखकर लोकपालों के लोकों की सम्पदा भी थोड़ी जान पड़ती है।
इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्या पुरी को भेज दिया।
सभी रानियां आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं – तुम सदा अपने पति की प्यारी होओ, तुम्हारा सुहाग अचल हो , हमारी यही आशीष है।
सास, ससुर और गुरु की सेवा करना आदर के साथ सब पुत्रियों को स्त्रियों के धर्म समझाकर रानियों ने बार बार उन्हें हृदय से लगाया।
उसी समय सूर्य वंश के पताका स्वरूप श्रीराम चन्द्र जी भाइयों सहित प्रसन्न होकर विदा कराने के लिए जनक जी के महल को चले।
रूप के समुद्र सब भाईयों को देखकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा सासुएं महान प्रसन्न मन से निछावर और आरती करती हैं।
“देखि राम छबि अति अनुरागी ,प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं।
रही न लाज प्रीति पुर छाई, सहज सनेहु बरनि किमि जाई।।”
श्रीराम चन्द्र की छवि देखकर वे प्रेम से अत्यंत मग्न हो गईं और प्रेम के विशेष वश होकर बार बार चरण लगने लगीं।
उन्होंने भाइयों सहित श्रीरामचन्द्र जी को उबटन करके स्नान कराया और बड़े प्रेम से षटरस भोजन कराया। सुअवसर जानकर श्रीराम चन्द्र जी शील, स्नेह और संकोच भरी वाणी बोले- महाराज अयोध्या पुरी को चलना चाहते हैं,
उन्होंने हमे विदा होने के लिए यहाँ भेजा है। हे माता- प्रसन्न मन से आज्ञा दीजिए और हमे अपने बालक जानकर सदा स्नेह बनाए रखिएगा। इन वचनों को सुनते ही रनिवास उदास हो गया। सासुएं प्रेम वश बोल नहीं सकती।
उन्होने सब कुमारिओं को हृदय से लगा लिया और उनके पतियों को सौंपकर बहुत विनती की – हे तात्, हे सुजान मै बलि जाती हूँ
तुमको सब हाल मालूम है परिवार को , पुर वासियों को , मुझको और राजा को सीता प्राणों के समान प्रिय है ऐसा जानिएगा।
हे तुलसी के स्वामी इसके शील और स्नेह को देखकर इसे अपनी दासी मानिएगा। ऐसा कहकर रानी चरणों को पकड़कर चुप रह गयी।
“राम बिदा मागत कर जोरी, कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरि।
पाइ असीस बहुरि सिरु नाई, भाइन्ह सहित चले रघुराई।।”
तब श्रीराम चन्द्र जी हाथ जोड़कर विदा मागते हुए बार बार प्रणाम किये।
आशीर्वाद पाकर और फिर सिर नवाकर भाइयों सहित रघुनाथ जी चले।
सीताजी को विदा करते समय सबके नेत्र आंसु से भर गये राजा जी ने जानकी जी को हृदय से लगा लिया।
सब बुद्धिमान मंत्री उन्हें समझाते हैं तब राजा ने विषाद करने का समय न जानकर विचार किया ।
बारंबार पुत्रियों को हृदय से लगाकर सुन्दर सजी हुई पालकियां मँगवाई।
राजा ने सुन्दर मुहूर्त जानकर सिद्धि सहित गणेश जी का स्मरण करके कन्याओं को पालकियों पर चढ़ाया।
“बहुबिधि भूप सुता समुझाई ,नारिधरमु कुलरीति सिखाई।
दासीं दास दिए बहुतेरे ,सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे ।।”
राजा ने पुत्रियों को बहुत प्रकार से समझाया और उन्हें स्त्रियों का धर्म और कुल की रीति सिखाई।
बहुत से दासी दास दिये जो सीताजी के प्रिय और विश्वास पात्र सेवक थे।
सीताजी के चलते समय जनकपुर वासी व्याकुल हो गये। मंगल की राशि शुभ शकुन हो रहे हैं।
ब्राह्मण और मंत्रियों के समाज सहित राजा जनक जी उन्हें पहुँचाने के लिए साथ चले।
समय देखकर बाजे बजने लगे। बारातियों ने रथ , हाथी और घोड़े सजाए। दशरथ जी ने सब ब्राह्मणों को बुला लिया और दान और सम्मान से परिपूर्ण कर विदा कर दिया।
“चरन सरोज धूरि धरि सीसा ,मुदित महीपति पाइ असीसा।
सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना, मंगलमूल सगुन भए नाना।।”
उनके चरण कमलों की धूलि सिर पर धरकर और आशीष पाकर राजा आनंदित हुए और गणेश जी का स्मरण करके उन्होंने प्रस्थान किया।
देवता हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं।
अवधपति दशरथ जी नगाड़े बजाकर आनंदपूर्वक अयोध्या पुरी को चले।
कौसलाधीश दशरथजी बार बार लौटने को कहते हैं परन्तु जनक जी प्रेम वश लौटना नही चाहते।
दशरथ जी फिर उन्हें सुहावने वचन कहे – हे राजन् हम बहुत दूर आ गये अब लौटिए।
तब जनक जी राजा दशरथ, अपने चारों दमादों और गुरु विश्वामित्र को प्रणाम किया और आशीर्वाद पाकर राजा जनक लौटे।
डंका बजाकर बारात चली। छोटे , बड़े सभी समुदाय प्रसन्न हैं।
रास्ते में गांव के स्त्री पुरुष श्रीराम चन्द्र जी को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं।
||जय श्री सीता राम||
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