अयोध्या में विवाह हेतु जनकपुर से संदेश

 

अयोध्या में विवाह हेतु जनकपुर से संदेश

परशुराम जी को राम जी के धनुष तोड़ने पर विश्वास नही था

तब उन्होंने श्रीराम चन्द्र जी से धनुष उठाने के लिए कहा, हे राम- धनुष को हाथ में लीजिए और खींचिए

जिससे मेरा संदेह मिट जाए। परशुराम जी धनुष देने लगे, तब वह आप ही चल गया। परशुराम जी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ।

“जाना राम प्रभाउ ,तब पुलक प्रफुल्लित गात।

जोरि पानि बोले बचन ,हृदयँ न प्रेमु अमात।।”

तब उन्होंने श्रीराम चन्द्र जी का प्रभाव जाना , जिसके कारण उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया,

वे हाथ जोड़कर वचन बोले- प्रेम उनके हृदय में समाता न था।

“जय रघुबंस बनज बन भानू , गहन दनुज कुल दहन कृसानू।

जय सुर बिप्र धेनु हितकारी ,जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।”

हे रघुकुल रूपी कमल वन के सूर्य हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि आपकी जय हो।

हे देवता, ब्राह्मण और गौका हित करने वाले , आपकी जय हो।

हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम को हरने वाने आपकी जय हो।

“कहि जय जय जय रघुकुल, केतू भृगुपति गए बनहि तप हेतू।

अपभयँ कुटिल महीप डेराने, जहँ तहँ कायर गवहिँ पराने।।”

हे रघुकुल के पताका स्वरूप श्रीराम चन्द्र जी आपकी जय हो, जय हो, जय हो।

ऐसा कहकर परशुराम जी तप के लिए वन को चले गए। यह देखकर दुष्ट राजा लोग बिना ही

कारण के डर से डर गये, वे कायर चुपके से जहाँ तहाँ भाग गए।

“देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं ,प्रभु पर बरषहिं फूल।

हरषे पुर नर नारि सब, मिटी मोहमय सूल।।”

देवताओं ने नगाड़े बजाए, वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री -पुरुष सब हर्षित हो गये।

उनका मोहमय शूल मिट गया। जनक जी के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता।

मानो जन्म का दरिद्र धन का खजाना पा गया हो।

सीता जी का भय जाता रहा वे ऐसे सुखी हुई जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चकोल की कन्या सुखी होती है।

जनक जी ने विश्वामित्र जी को प्रणाम किया और कहा – प्रभु ही की कृपा से श्रीराम चन्द्र जी ने धनुष तोड़ा है।

दोनो भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी- अब जो उचित हो सो कहिए।

“कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना ,रहा बिबाहु चाप आधीना ।
टूटतही धनु भयउ बिबाहू सुर ,नर नाग बिदित सब काहू।।”

मुनि ने कहा- हे चतुर नरेश सुनो, यों तो विवाह धनुष के अधीन था, धनुष के टूटते ही विवाह हो गया।

देवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है तथापि तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो,

ब्राह्मणो, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित आचार हो वैसा करो।

“दूत अवधपुर पठवहु जाई, आनहिं नृप दसरथहि बोलाई।

मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला ,पठए दूत बोलि तेहि काला।।”

जाकर अयोध्या को दूत भेजो, जो राजा दसरथ को बुला लावैं।

राजा ने प्रसन्न होकर कहा हे कृपालु बहुत अच्छा और उसी समय दूत को बुलाकर भेज दिया।

फिर सब महाजनों को बुलाया और सबने आकर राजा को सिर नवाया।

राजा ने कहा- बाजार, रास्ते, घर , देवालय, और सारे नगर को चारो ओर से सजाओ, विचित्र मंडप सजाकर तैयार करो।

यह सुनकर वे सब राजा के वचन सिर पर धर कर और सुख पाकर चले।

उन्होंने ब्रह्मा की वंदना कर कार्य प्रारंभ किया।

कारीगरों ने हरी-हरी मणियों के पत्ते और फल बनाए, सोने की सुन्दर नाग बेली बनाई।

मणिक, पन्ने, हीरे और फिरोज , इन रत्नों को चीरकर इनके कमल बनाए भँवरे और बहुत रंगों के पक्षी बनाए।

खंभों पर देवताओं की मूर्तियां निकालीं, जो सब मंगल द्रव्य लिए खड़ी थी।

गज मुक्ताओं के सहज ही सुहावने अनेकों तरह की चौक पुराए।

“दूलहु रामु रूप गुन सागर ,सो बितानु तिहुँ लोक उजागर ।

जनक भवन कै सोभा जैसी ,गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी।।”

जिस मण्डप में रूप और गुणों क समुद्र श्री राम चन्द्र जी दूल्हे होंगे, वह मंडप तीनों लोकों में प्रसिद्ध होना चाहिए।

जनक जी के महल की जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के प्रत्येक घर की दिखाई देती है।

“पहुँचे दूत राम पुर पावन ,हरषे नगर बिलोकि सुहावन।

भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई, दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई।।”

जनकजी के दूत श्रीराम चन्द्र जी की पवित्र पुरी अयोध्या में पहुँचे। सुन्दर नगर देख के वे हर्षित हुए।

राज द्वार पर जाकर उन्होंने खबर भेजी, राजा दशरथ जी ने सुनकर उन्हें बुला लिया।

दूतों ने प्रणाम करके चिट्ठी दी। प्रसन्न होकर राजा ने उठकर उसे लिया।

चिट्ठी बांचते समय उनके नेत्रों में प्रेम और आनंद के आंसू छा गये। शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आयी।

“खेलत रहे तहाँ सुधि पाई ,आए भरतु सहित हित भाई।

पूछत अति सनेहँ सकुचाई, तात कहाँ तें पाती आई।।”

भरत जी अपने मित्रों और भाई शत्रुघ्न के साथ जहाँ खेलते थे वहीं समाचार पाकर वे आ गये।

बहुत प्रेम से सकुचाते हुए पूछते हैं- पिता जी चिट्ठी कहां से आई है।

हमारे प्राणों से प्यारे दोनो भाई, कहिए सकुशल तो हैं और वे किस देश में हैं ?

स्नेह से सने यह वचन सुनकर राजा ने फिर से चिट्ठी पढ़ी ।

||जय श्री सीता राम||

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