
।। राम सीया राम सीया राम जय जय राम ।।
“ राम रामेति रामेति , रमे रामे मनोरमे ।
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं,रामनाम वरानने ।। “
राम का अर्थ – रा=राष्ट्र , म=मर्यादा अर्थात राम ही राष्ट्र की मर्यादा है।
‘रम्’ धातु में’ घञ्’ प्रत्यय के योग से राम शब्द निष्पन्न होता है । रम् धातु का अर्थ रमण (निवास) करने से सम्बध्द है ।
वे प्राणी मात्र के ह्रदय में निवास करते है , इसलिए राम है तथा भक्तजन उनमें रमण करते है ,
इसलिए भी वे ‘राम ‘है – “रमते कणे – कणे इति राम: “। विष्णुसहस्त्रनाम पर लिखित अपने भाष्य में शंकराचार्य ने पद्मपुराण का उदाहरण देते हुए कहा है कि
नित्यानन्दस्वरुप भगवान् में योगिजन रमण करते है , इसलिए वे ‘राम’ है ।
वैदिक साहित्य में राम का उल्लेख प्रचलित रुप में नहीं मिलता है ।
ऋग्वेद में केवल दो स्थलों पर ही राम शब्द का प्रयोग हुआ है। उनमें
से भी एक जगह काले रंग अर्थ में तथा शेष एक जगह ही व्यक्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ है
लेकिन वहां भी उनके अवतारी पुरुष या दशरथ के पुत्र होने का कोई संकेत नहीं है।
यद्यपि नीलकण्ठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के अनेक मंन्त्रों को स्वविविक से चुनकर उनके राम कथापरक अर्थ किये हैं,
परन्तु यह निजी मान्यता है ।
स्वयं ऋग्वेद के उन प्रकरणों में प्राप्त किसी संकेत या किसी अन्य भाष्यकर के द्वारा उन मंत्रों का रामकथापरक अर्थ सिद्ध नहीं हो पाया है।
ऋग्वेद में एक स्थल पर ‘इक्ष्वाकुः’ (१०-६०-४) का तथा एक स्थल पर दशरथ’ (१-१२६-४) शब्द का भी प्रयोग हुआ है।
परन्तु उनके राम से सम्बद्ध होने का कोई संकेत नहीं मिल पाता है।
ब्राह्मण साहित्य में ‘राम’ शब्द का प्रयोग ऐतरेयमें दो स्थलों पर)हुआ है; परन्तु वहाँ उन्हें ‘रामो मार्गवेयः’ कहा गया है,
जिसका अर्थ आचार्य सायण के अनुसार ‘मृगवु’ नामक स्त्री का पुत्र है।
में एक स्थल पर ‘राम’ शब्द का प्रयोग हुआ है । यहां ‘राम’ यज्ञ के आचार्य के रूप में है
तथा उन्हें राम औपतपस्विनि कहा गया है। तात्पर्य यह कि प्रचलित राम का अवतारी रूप वाल्मिकि रामायण एवं पुराणों की ही देन है।
“श्री सहित दिनकर बंस भूषन काम बहु छवि सोहई ।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई ।।
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे ।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखतिं जे ।।”
“बंदउँ नाम राम रघुबर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ।।
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।
महामंत्र जोइ जपत महेसू । काशी मुकुति हेतु उपदेसू ।।”
भगवान श्रीराम , प्रभु के राम-नाम का मैं वंदना करता हूँ, क्यों ?
रामनाम भगवान के सब नामों में श्रेष्ठ है , छोटा है ,कोई भी आसानी से कह
सकता है । नाम के प्रताप से बाबा वाल्मीकि जी सिध्द हो गये , नाम के प्रताप से नारद जी देवताओं , दैत्यों , मानवों सबके ऋषि हो गए ।
महिमा का स्मरण गोस्वामीजी ऐसे करते हैं।
“बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोई फल सिधि सब साधन फूला ।।”
सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्रीराम जी की कृपा के बिना किसी को सत्संग आसानी से नहीं मिलता ।
सत्संगति से ही कल्याण
होता है । सत्संग की सिद्धि ही फल है और सब साधन तो फूल है ।
राम नाम का तीन बार उच्चारण हजारों देवताओं को स्मरण करने के समान है ।
महाभारत में वर्णित है कि एक बार भगवान शिव ने कहा था कि राम का नाम तीन बार
उच्चारण करने से हजारों देवताओं के नामों का उच्चारण करने के बराबर फल की प्राप्ति होती है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भगवान शिव भी ध्यानावस्था में भगवान राम के नाम का ही उच्चारण करते हैं।
“सीया राम मय सब जग जानी।
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ।।”
(इस पृथ्वी पर जीतने भी जीव जन्तु , चर अचर प्राणी है , मैं उन सब में भगवान श्री राम को देखता हुँ, इस लिए मैं उन सभी को हाथ जोड़कर प्रणाम करता हुँ।)
“जनकसुता जग जननि जानकी । अतिसय प्रिय करुनानिधान की ।।
ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ ।।
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक । चरन कमल बदउँ सब लायक ।।
राजिवनयन धरें धनु सायक । भगत बिपति भंजन सुखदायक ।।”
माँ की कृपा से निर्मल मति प्राप्त करके मन से , वाणी से और कर्म से भगवान श्री रघुनाथ जी के श्री चरण की वंदना करता हूँ ।
राजीव नयन हैं, धनुष बाण धारण किये हुए हैं ,
भगवान के स्वरुप का मंगल दर्शन करते समय एक-एक अलंकार का दर्शन करना चाहिए ,
चित्त में उतरना चाहिए ,
बारम्बार उनका स्मरण करते रहना आंनदवर्धन होता है ।
“प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू”॥
सबसे पहले मैं श्री भरतजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनके नियम और व्रत का वर्णन नहीं किया जा सकता तथा
जिनका मन श्री राम के चरणकमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है, कभी उनके चरण कमलों को नहीं छोड़ता हैं ।
।।जय सीता राम।।

राम रामेति रामेति , रमे रामे मनोरमे ।
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं,रामनाम वरानने ।।
राम का अर्थ – रा=राष्ट्र , म=मर्यादा अर्थात राम ही राष्ट्र की मर्यादा है।
‘रम्’ धातु में’ घञ्’ प्रत्यय के योग से राम शब्द निष्पन्न होता है । रम् धातु का अर्थ रमण (निवास) करने से सम्बध्द है ।
वे प्राणी मात्र के ह्रदय में निवास करते है , इसलिए राम है तथा भक्तजन उनमें रमण करते है ,
इसलिए भी वे ‘राम ‘है – “रमते कणे – कणे इति राम: “। विष्णुसहस्त्रनाम पर लिखित अपने भाष्य में शंकराचार्य ने पद्मपुराण का उदाहरण देते हुए कहा है कि
नित्यानन्दस्वरुप भगवान् में योगिजन रमण करते है , इसलिए वे ‘राम’ है ।
“बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोई फल सिधि सब साधन फूला ।।”
सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्रीराम जी की कृपा के बिना किसी को सत्संग आसानी से नहीं मिलता ।
सत्संगति से ही कल्याण
होता है । सत्संग की सिद्धि ही फल है और सब साधन तो फूल है ।
राम नाम का तीन बार उच्चारण हजारों देवताओं को स्मरण करने के समान है ।
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