राम जी की बाल्यावस्था एंव शिक्षा

 

राम जी की बाल्यावस्था एंव शिक्षा

 

सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत ।

दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत ।।

जो सुख के पुज्ज ,   मोह से परे तथा ज्ञान , वाणी और इन्द्रियों से अतीत है , वे भगवान् दशरथ – कौसल्या के अत्यन्त प्रेम के वश होकर  पवित्र बाल लीला करते है ।

श्रीरघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे , परन्तु उसका संसार बन्धन कौन छुड़ा सकता है । जिसके सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा हैं, वह माया भी प्रभु से भय खाती है ।

“प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान ।

सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान ।।”

(पुत्र के प्रेम और बाल रुप को निहारते हुए माता कौसल्या का दिन कैसे बित जाता है उन्हे पता ही नही चलता है,

और माता अपने पुत्र का गुणगान करते  ही नहीं थकती है ।)

“एक बार जननीं अन्हवाए ।  करि सिंगार पलनाँ पौढा़ए ।।download (25)

निज कुल इष्टदेव भगवाना । पूजा हेतु किन्ह अस्नाना ।।”

एक बार माता कौसल्या ने श्रीराम जी को स्नान कराया और श्रृगार करके पालने पर लिटा दिया । फिर अपने कुल देव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया ।

“करि पूजा नैबेद्घ चढ़ावा । आपु गई जहँ पाक बनावा ।।

बहुरि मातु तहवाँ चलि आई । भोजन करत देख सुत जाई ।।”

अपने इष्ट देव की पुजा करके नैवेद्ध चढ़ाया और फिर रसोई घर में चली गयी । फिर माता पूजा घर मेंं आयी जहाँ उन्होने अपने पुत्र को भगवान को भोग लगाये गये नैवेद्ध को खाते हुए देखा ।

“गै जननी सिसु पहिं भयभीता । देखा बाल तहाँ पुनि सुता ।

बहुरि आइ देखा सुत सोई । ह्रदयँ कंप मन धीर न होई ।।”

माता भयभीत होकर पालने के पास गई जहाँ, उन्होने पुत्र को सोते हुए देखा । फिर माता पुजा के स्थान पर आयी जहाँ उन्होने पुत्र को भोजन खाते देखा । भगवान की इस लीला को देख कर माता डर गयी ।

तब माता सोचने लगी यहाँ वहाँ दो बालक, यह केवल मेरी बुद्धि का भ्रम है। माता  को घबड़ायी हुई  देखकर प्रभु श्रीराम जी ने मधुर मुस्कान से देखा।

“देखरावा मातहि निज अभ्दुत रुप अंखड ।download (26)

रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रम्हांड ।।”

फिर उन्होने माता को अपना अखण्ड अद्भुत रुप दिखलाया , जिसके एक एक रोम में करोंड़ों ब्रम्हाण लगे हुए है।अपने बालक का यह रुप देखकर माता भयभीत हो गयी और हाथ जोड़कर विनती करने लगी कि प्रभो ! मुझे अब अपनी  माया कभी न दिखाना ।

“अगनित रबि ससि सिव चतुरानन । बहु गिरि  सरित सिंघु महि कानन ।।

काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ । सोउ देखा जो सुना न काऊ ।।”

अगणित सूर्य , चन्द्रमा ,शिव , ब्रह्मा , बहुत से पर्वत  , नदियाँ , समुद्र ,पृथ्वी , वन , काल , कर्म , गुण , ज्ञान और स्वभाव देखे । और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न थे ।

भगवान ने बहुत प्रकार से बाल लीलाएँ की और अपने माता पिता , कुटुम्बियों तथा सेवकों को अत्यन्त आनन्द दिया ।

“चुड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई ।बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई ।।

परम मनोहर चरित अपारा । करत फिरत चारिउ सुकुमारा ।।”

गुरु जी ने आकर चारों राजकुमारों का चूड़ाकर्म संस्कार किया । इसके पश्चात राजा दशरथ ने ब्राहृमणों को बहुत सारी दक्षिणा देकर विदा किया ।

“भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ ।

भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ ।।”

भोजन करते हैं पर चित चंचल हैं। अवसर पाकर मुँह में दही -भात लपटाये किलकारी मारते हुए इधर -उधर भाग जाते है ।

“भए कुमार जबहिं सब भ्राता । दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता ।

गुरुगृह गए पढ़न रघुराई । अलप काल बिद्दा सब आई ।।”download (31)

ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यो ही गुरु, पिता और माता ने यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया । श्रीरघुनाथ जी भाइयों के साथ गुरु के घर में विद्दा पढ़ने गयें और थोड़े समय में उनको सब विद्दाएँ आ गयी ।

“करतल बान धनुष अति सोहा । देखत रुप चराचर मोहा ।।

जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई । थकित होहिं सब लोग लुगाई ।।”download (29)

चारों भाईयो राम , लक्ष्मण , भरत ,शत्रुधन के हाथों में धनुष और बाण बहुत ही शोभा देते है । रुप देखते ही चराचर जड़ -चेतन मोहित हो जाते है । वे सब भाई जिन गलियों से खेलते हुए गुजरते है ,उन गलियों के सभी स्त्री- पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते है।

अयोध्या में रहने वाले सभी स्त्री ,पुरुष , बूढ़े और बालक सभी को भगवान श्री रामचन्द्र जी प्राणों से भी  बढ़कर प्रिय लगते है ।

श्रीरामचन्द्र जी अपने भाईयों और इष्ट मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते है , और नित्य वन में जाकर शिकार खेलते है।

 “प्रातकाल उठि कै रघुनाथा । मातु पिता गुरु नावहिं माथा ।।

आयसु मागि करहिं पुर काजा । देखि चरित हरषइ मन राजा ।।”

श्रीरघुनाथ जी प्रात: काल उठकर माता-पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगर का काम करते हैं। उनके चरित्र देख देखकर राजा मन में हर्षित  होते हैं ।

“ब्यापक अकल अनीज अज निर्गुन नाम न रुप ।

भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप ।।” 

जो व्यापक , अकल , इच्छारहित , अजन्मा और निर्गुण हैं, तथा जिनका न नाम है न रुप , वही भगवान्  भक्तों  के लिए नाना प्रकार के अनुपम चरित्र करते हैं।

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||जय श्रीसीताराम||

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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