लक्ष्मण – परशुराम संवाद -2
” बिहसि लखनु बोले मृदु बानी , अहो मुनीसु महा भटमानी ।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु , चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।”
लक्ष्मण जी हंसकर कोमल वाणी से बोले – अहो मुनिश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं
बार बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं।
भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूँ।
देवता, ब्राह्मण , भगवान के भक्त और गौ – इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती ।
” बँधे पापु अपकीरति हारें ,मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें ।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा , ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ।। “
क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है। इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए।
आपका एक-एक वचन ही करोड़ों बज्रों के समान है। धनुष बाण और कुठार तो आप ब्यर्थ ही धारण करते हैं।
” जो बिलोकि अनुचित कहेउँ , क्षमहु महामुनि धीर । “
सुनि सरोष भृगुबंसमनि , बोले गिरा गंभीर ।। “
लक्ष्मण जी परशुराम जी के धनुष बाण और कुठार को देखकर कहते हैं कि मैने जो कुछ अनुचित
कहा हो, तो उसे है धीर महामुनि क्षमा कीजिए। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुराम जी क्रोध के साथ गंभीर वाणी बोले- हे विश्वामित्र सुनो , यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है,
काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्ण चन्द्र का कलंक है।यह बिल्कुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर है। अभी क्षण भर में यह काल का ग्रास हो जाएगा।
मै पुकार कर कहे देता हूँ , फिर मुझे दोष नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो,
तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो।
” लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा ,तुम्हहि अछत को बरनै पारा ।
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी ,बार अनेक भाँति बहु बरनी ।। ”
लक्ष्मण जी ने कहा हे मुनि आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है।
आपने अपने ही मुह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है।
इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोककर असह्य दुख मत सहिए ।
आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और क्षोभ रहित हैं गाली देते शोभा नही पाते।
आप तो मानो काल को हाथ लगाकर बार बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं।
लक्ष्मण जी के कठोर वचन सुनते ही परशुराम जी ने अपने भयानक फरसे को सुधाकर हाथ में ले लिया और बोले – अब लोग मुझे दोष न दें यह कड़वा बोलने वाला बालक मारे जाने योग्य ही है।
इसे बालक देखकर मैने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है।
विश्वामित्र जी ने कहा अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते ।
परशुराम जी बोले तीखी धार का कुठार, मैं दया रहित और क्रोधी, और यह गुरुद्रोही अपराधी मेरे सामने उत्तर दे रहा है
इतने पर भी में इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र केवल तुम्हारे प्रेम के कारण नही
तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता।
” कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा ,को नहीं जान बिदित संसारा ।
माता पितहि उरिन भए नीकें गुर , रिनु रहा सोचु बड़ जी कें ।। “
लक्ष्मण जी ने कहा हे मुनि आपके शील को कौन नहीं जानता । यह संसार भर में प्रसिद्ध है आप माता-पिता से तो अच्छी तरह से उऋण हो ही गये, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है।
” सुनि कटु बचन कुठार सुधारा ,हाय हाय सब सभा पुकारा ।।
भृगुबर परसु देखावहु मोही बिप्र , बिचारि बचउँ नृपद्रोही ।। “
लक्ष्मण जी के कड़ुवे वचन सुनकर परशुराम जी ने कुठार संभाला सारी सभा हाय हाय करके पुकार उठी।
लक्ष्मण जी ने कहा हे भृगुश्रेष्ठ आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं
पर हे राजाओं के शत्रु मैं ब्राह्मण समझ के बचा रहा हूँ।
आपको कभी रणधीर बलवान वीर नहीं मिले। हे ब्राह्मण देवता आप घर में ही बड़े हैं यह सुनकर ‘ अनुचित है, अनुचित है ‘
कहकर सब लोग पुकार उठे ।
तब श्री रघुनाथ जी ने इशारे से लक्ष्मण जी को रोक दिया।
“लखन उतर आहुति सरिस ,भृगुबर कोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम ,बचन बोले रघुकुलभानु ।।”
लक्ष्मण जी के उत्तर से, जो आहुति के समान थे परशुराम जी के क्रोध रूपी अग्नि को बढ़ते देखकर
रघुकुल के सूर्य श्रीरामचन्द्र जी जल के समान शान्त वचन बोले-
“नाथ करहुँ बालक पर छोहू ,सूध दूधमुख करिअ न कोहू।
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना तौ ,कि बराबरि करत अयाना।।”
हे नाथ बालकपर कृपा कीजिए ।
इस सीधे और दुधमुहे बच्चे पर क्रोध न कीजिए यदि यह आपका कुछ भी प्रभाव जानता तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता ?
बालक यदि कुछ चपलता भी करते हैं तो गुरु, पिता और माता मन में आनंद से भर जाते हैं
अत: इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिए।
आप तो समदर्शी , सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं।
|| जय श्री सीता राम ||
👍👍🙏🙏🙏
Jai ho🙏🙏🙏