श्रीरामजी ने माता सीता की सुन्दरता की तुलना चन्द्रमा से की
पुष्पवाटिका में सीताजी से मिलन के बाद श्रीराम चन्द्रजी मन ही मन खुश हैं।
“ह्रदयँ सराहत सीय लोनाई , गुरु समीप गवने दोउ भाई ।
राम कहा सबु कौसिक पाहीं , सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ।।”
ह्रदय में सीता जी के सौन्दर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गये ।
श्रीरामचन्द्रजी ने विश्वानृमित्र जी से सब कुछ कह दिया ।
क्योकि राम जी का स्वभाव बहुत ही सरल है, छल उन्हे छुता भी नहीं है ।
” सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही , पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही।
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे , रामु लखनु सुनि भए सुखारे।।”
फूल पाकर मुनि ने पूजा की, फिर दोनो भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों ।
यह सुनकर श्रीराम लक्ष्मण जी सुखी हुए।
” करि भोजन मुनिबर बिग्यानी , लगे कहन कछु कथा पुरानी ।
बिगत दिवस गुरु आयसु पाई , संध्य करन चले दोउ भाई।। “
श्रेष्ठ विज्ञानी मुनि विश्वामित्र जी भोजन करके कुछ कथाएँ कहने लगे । इतने में दिन बीत गया ,और गुरु की आ
ज्ञा पाकर दोनों भाई सन्ध्या करने चले ।
” प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा , सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा ।
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं, सीय बदन सम हिमकर नाहीं ।। “
पूर्व दिशा में सुन्दर चन्द्रमा उदय हुआ है । श्रीराम जी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया । फिर मन में विचार किया कि यह
चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है ।
“जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु, दिन मलीन सकंलक ।
सिय मुख समता पाव , किमि चंदु बापुरो रंक।।”
राम जी ने विचार किया इस चंद्रमा का जन्म तो खारे समुंद्र में हुआ है
विष इसका भाई है दिन में यह मलीन रहता है और कलंकी है बेचारा गरीब चंद्रमा सीता जी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है।
” घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई , ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई।
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही , अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही।। “
फिर यह घटता बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुख देने वाला है , राहु अपनी सन्धिमें इसे पाकर ग्रस लेता है। चकवे को शोक देना वाला और कमल का बैरी है। हे चन्द्रमा तुझमें बहुत से अवगुण हैं जो सीता जी में नहीं हैं।
” बैदेही मुख पटतर दीन्हे होई , दोषु बड़ अनुचित कीन्हें।
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी , गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी।।”
अत: जानकी जी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा।
इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीता जी के मुख की छबि का वर्णन करके , बड़ी रात हो गयी जान, वे गुरु जी के पास चले।
” करि मुनि चरन सरोज प्रनामा , आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा ।
बिगत निसा रघुनायक जागे , बंधु बिलोकि कहन अस लागे।। “
उनके कमल चरणों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया रात बीतने पर श्री रघुनाथ जी जागे औऱ लक्ष्मण जी से कहने लगे –
” उयउ अरुण अवलोकहु ताता , पंकज कोक लोक सुखदाता।
बोले लखन जोरि जुग पानी , प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी।। “
हे तात- देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देने वाला अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मण जी दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव को सूचित करने वाली कोमल वाणी बोले।
” अरुणोदयँ सकुचे कुमुद , उडगन जोति मलीन।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि , भए नृपति बलहीन।। “
अरुणोदय होने से कुमुदिनी सकुचा गयी और तारागणों का प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गये।
” नृप सब नखत करहिं उजियारी , टारि न सकहिं चाप तम भारी।
कमल कोक मधुकर खग नाना , हरषे सकल निसा अवसाना।। “
सब राजा रूपी तारे उजाला करते हैं, पर वे धनुष रूपी महान अंधकार को हटा नहीं सकते।
रात्रि का अन्त होने से जैसे कमल , चकवे, भौंरे और नाना प्रकार के पक्षी हर्षित हो रहे हैं।
” ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे , होइहहिं टूटें धनुष सुखारे।
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा , दुरे नखत जग तेज प्रकासा।। “
वैसे ही हे प्रभु आपके सब भक्त धनुष टूटने पर सुखी होंगे।
सूर्य उदय हुआ बिना ही परिश्रम अंधकार नष्ट हो गया, तारे छिप गये, संसार में तेज का प्रकाश हो गया।
” रबि निज उदय ब्याज रघुराया , प्रभु प्रताप नृपन्ह दिखाया।
तव भुज बल महिमा उदघाटी , प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।। “
हे रघुनाथ जी, सूर्य ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को आपका प्रताप दिखलाया है।
आपकी भुजाओं के बल की महिमा को उद्घाटित करने के लिए ही धनुष तोड़ने की यह पद्धति प्रगट हुई है।
” बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने, होइ सुचि सहज पुनीत नहाने |
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए ,चरन सरोज सुभग सिर नाए ।। “
भाई के वचन सुनकर प्रभु मुसकराए। फिर श्रीराम चन्द्र जी नित्य क्रिया करके गुरु जी के पास आए । आकर उन्होंने गुरुजी के सुन्दर चरणकमलों में सिर नवाया।
” सतानंदु तब जनक बोलाए , कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए।
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई , हरषे बोलि लिए दोउ भाई।। “
तब जनक जी ने शतानन्द जी को बुलाया और उन्हें तुरन्त ही विश्वामित्र मुनि के पास भेजा।
उन्होंने आकर जनक जी की विनती सुनाई । विश्वामित्र जी ने हर्षित होकर दोनों भाईयों को बुलाया।
|| जय श्री सीता राम ||
Jai shiya ram..
Wow👌👌