श्री राम चन्द्र जी का राजतिलक
श्री राम चन्द्र जी का राजतिलक जिनकी गोद में हिमाचलसुता पार्वतीजी ,
मस्तक पर गंग जी, ललाट पर द्वितीयाका चन्द्रमा, कंठ मे हलाहल
विष और वक्षस्थल पर सर्पराज शेष जी सुशोभित हैं, वे भस्मसे विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ , सर्वेश्वर ,
संहारकर्ता, सर्वव्यापक, कल्याणरूप, चन्द्रमा के समान सुभ्रवर्ण श्री शंकर जी सदा मेरी रक्षा करें।
रघुकुल को आनंद देने वाले श्री राम चन्द्र जी के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक से न तो प्रसन्नता प्राप्त हुई
और न वनवास के दुख से मलिन ही हुई।
वह मेरे लिए सदा सुन्दर मंगलों की देने वाली हो।
“नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग्डं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्।।”
नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं, श्रीसीता जी जिनके वाम भाग में विराजमान हैं
और जिनके हाथों में अमोघ बाण और सुन्दर धनुष है , उन रघुवंश के स्वामी श्री राम जी को मै नमस्कार करता हूं।
“श्रीगुरु चरन सरोज रज ,निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु ,जो दायकु फल चारि।।”
“जब तें राम ब्याहि घर आए ,नित नव मंगल मोद बधाए।
भुवन चारिदस भूधर भारी ,सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी।।”
जबसे श्री राम चन्द्र जी ब्याह कर के घर आए तब से अयोध्या में नित नये मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं।
चौदहो लोक रूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं। सब माताएं
और सखी सहेलियां अपने मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देखकर आनंदित हैं
श्री राम जी के रूप, गुण , शील और स्वभाव को देख सुनकर राजा दशरथ जी बहुत ही आनंदित होते हैं।
राजा दशरथ जी ने श्रीराम चन्द्र जी को युवराज पद देने का विचार किया और गुरु वशिष्ठ जी को सुनाया।
राजा ने कहा हे मुनिराज कृप्या यह निवेदन सुनिए श्रीराम अब सब प्रकार से योग्य हो गये हैं।
अब मेरे मन में एक ही अभिलाषा है कि हे नाथ श्रीराम जी को युवराज बना दिया जाए कृप्या करके आज्ञा दीजिए तो तैयारी की जाए।
मेरे जीते जी यह आनंद उत्सव हो जाए केवल यही एक लालसा मन मे रह गयी है।
दशरथ जी के मंगल और आनंद के मूल सुंदर वचन सुनकर मुनि मन में बहुत प्रसन्न हुए।
“सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं ,जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं।
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी ,रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।”
वशिष्ठ जी ने कहा हे राजन् सुनिए जिनके विमुख होकर लोग पछताते हैं और जिनके भजन बिना जी की
जलन नही जाती वही स्वामी
श्री राम जी आपके पुत्र हुए हैं वे पवित्र प्रेम के अनुगामी हैं।
हे राजन् अब देर न कीजिए , शीघ्र सब सामान सजाइये।
शुभ दिन और सुन्दर मंगल तभी है जब श्री चन्द्र जी युवराज हो जाएं।
“मुदित महीपति मंदिर आए ,सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए ,भूप सुमंगल बचन सुनाए।।”
राजा आनन्दित होकर महल मे आए और उन्होने सेवकों को तथा मंत्री सुमंत्र को बुलवाया उन लोगो ने जयजीव कहकर सिर नवाए ।
तब राजा ने सुन्दर मंगल वचन श्रीराम जी को युवराज पद देने का प्रस्ताव सुनाए और
कहा यदि पंचों को यह मत अच्छा लगे तो हृदय में हर्षित होकर आप लोग
श्रीराम जी का राजतिलक कीजिए । इस प्रिय वाणी को सुनते ही मंत्री ऐसे आनन्दित हुए
मानो उनके मनोरथ रूपी पौधे पर पानी पड़ गया हो।
मंत्री हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि हे जगत्यपति आप करोड़ों वर्ष जियें ।
“कहेउ भूप मुनिराज ,कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राज राज अभिषेक हित ,बेगि करहु सोइ सोइ।।”
राजा ने कहा – श्री राम जी के राज्याभिषेक के लिए मुनिराज वशिष्ठ जी की जो आज्ञा हो आप लोग वही सब तुरंत करें।
मनुराज ने हर्षित होकर कोमल वाणी से कहा कि संपूर्ण तीर्थों का जल ले आओ फिर
उन्होंने औषधि, मूल , फूल , फल और पत्र आदि अनेकों मांगलिक वस्तुओं के नाम गिनकर बताए।
चँवर, मृगचर्म , बहुत प्रकार के वस्त्र , असंख्यों जातियों के ऊनी और रेशमी कपड़े मणियां तथा और
भी बहुत सी मंगल वस्तुएं जो जगत में राज्याभिषेक के योग्य होती हैं सबको मंगाने की उन्होंने आज्ञा दी।
“बेद बिदित कहि कल बिधाना ,कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना।
सफल रसाल पूगफल केरा ,रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा।।”
मुनि ने वेदों मे कहा हुआ सब विधान बताकर कहा नगर में बहुत से मण्डप सजाओ ।
फलों समेत आम , सुपारी और केले के वृक्ष नगर की गलियों में चारो ओर रोप दो।
सुन्दर मणियों के मनोहर चौक पुरवाओ और बाजार को तुरंत सजाने के लिए कह दो ।
श्री गणेश जी , गुरु और कुलदेवता की पूजा करो और भूदेव ब्राह्मणों की सब प्रकार से सेवा करो ।
ध्वजा, पताका , तोरण , कलश , घोडे़ , रथ और हाथी सबको सजाओ ।
मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठ जी के वचनों को शिरोधार्य करके सब लोग अपने अपने काम मे लग गये।
मुनीश्वर ने जिसको जिस काम के लिए आज्ञा दी , उसने वह काम इतनी शीघ्रता से कर डाला कि मानो पहले सी ही कर रखा था।
रघुकुल को आनंद देने वाले श्रीराम के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक से न तो प्रसन्नता प्राप्त हुई और न वनवास के दुख से मलिन ही हुई।
||जय श्री सीता राम ||
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