सीता जी का स्वयंवर में आगमन, वर्णन
“जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतुर सखी सुंदर सकल सागर चलीं लवाइ।।”
तब सुअवसर जानकर जनक जी ने सीता जी को बुलावा भेजा।
सब चतुर और सुंदर सखियां आदर पूर्वक उन्हें लेने चली।
“सीय सोभा नहीं जाइ बखानी जगदंबिका रूप गुन खानी।
उपमा सकल मोहि लघु लागीं प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।”
रूप और गुणों की खान जगजननी जानकी जी की शोभा का वर्णन नही किया जा सकता।
उनके लिए मुझे काव्य की सब उपमाएं तुच्छ लगती हैंं, क्योंकि वे लौकिक स्त्रियों के अंगों से अनुराग रखने वाली हैं।
यदि किसी स्त्री के साथ सीता जी की तुलना की जाए तो जगत में ऐसी सुन्दर स्त्री कोई है ही नहीं।
“गिरा मुखर तन अरध भवानी रति अति दुखित अतनु पति जानी।
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही कहिअ रमासम किम बैदेही ।।”
पृथ्वी के स्त्रियों की बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी देखा जाए तो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुन्दर हैं,
दो उनमें सरस्वती जी बहुत बोने वाली हैं पार्वती अर्द्धांगिनी हैं,
कामदेव की स्त्री रति पति को बिना शरीर का जानकर बहुत दुखी रहती हैं
और जिनके विष और मद्द जैसे प्रिय भाई हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकी जी को कहा ही कैसे जाए ।
“चली संग लै सखी सयानी गावत गीत मनोहर बानी।
सोह नवल तनु सुंदर सारी जगत जननि अतुलित छबि भारी।।”
सयानी सखियाँ सीता जी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं।
सीता जी के नवल शरीर पर सुंदर साड़ी सुशोभित है।
जगज्जननी की महान छबि अतुलनीय है। सब आभूषण अपनी अपनी जगह पर शोभित है,
जिन्हें सखियों ने अंग अंग में भलीभाँति सजाकर पहनाया है।
जब सीता जी ने रंगभूमि में पैर रखा तब उनका रूप देखकर स्त्री पुरुष सभी मोहित हो गये।
देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएं गाने लगी।
सीता जी के कर कमलों में जयमाला सुशोभित है सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे।
“सीय चकित चित रामहि चाहा भए मोहबस सब नरनाहा।
मुनि समीप देखे दोउ भाई लगे ललकि लोचन निधि पाई।।”
सीता जी चकित चित्त से श्रीराम जी को देखने लगी, तब सब राजा लोग मोह के बस हो गए सीता जी
ने मुनि के पास बैठे हुए दोनो भाइओं को देखा तो उनके नेत्र श्रीराम जी को देखकर स्थिर हो गये।
परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीता जी सकुचा गयी।
वे श्रीरामचन्द्र जी को हृदयँ में बसाकर सखियों की ओर देखने लगी।
“राम रुपु अरु सिय छबि देखें नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें।
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं बिधि सन बिनय करहिं मन माही।।”
श्री राम चन्द्र जी का रूप और सीता जी की छबि देखकर स्त्री पुरुषों ने पलक झपकना छोड़ दिया
सब एकटक उन्हीं को देखने लगे। सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं।
मन- ही- मन वे विधाता से विनय करते हैं-
“हरि बिधि बेगि जनक जड़ताई मति हमारि असि देहि सुहाई।
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू सीय राम कर करै बिबाहू।।”
हे विधाता ! जनक जी की मूढ़ता को शीघ्र हर लिजिये और हमारी ही ऐसी सुन्दर बुद्धि उन्हे दीजिये कि
जिससे बिना ही विचार किये राजा अपना प्रण छोड़कर सीता जी का विवाह राम जी से कर दें।
“तब बंदीजन जनक बोलाए । बिरिदावली कहत चलि आए ।
कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा । चले भाट हियँ हरषु न थोरा ।।”
तब राजा जनक ने बंदीजनों को बुलाया । वे बिरुदावली गाते हुए चले आए ।
राजा ने कहा जाकर मेरा प्रण सबसे कहो । भाट चले उनके ह्रदय में कम आनन्द नहीं था ।
भाटों ने श्रेष्ठ वचन कहा – हे पृथ्वी के पालन करने वाले सब राजा गण !
सुनिए हम अपनी भुजा उठाकर जनर जी का विशाल प्रण कहते है ।
“नृप भुजबलु बिधु सिवधनु राहू , गरुअ कठोर बिदित सब काहू ।
रावनु बानु महाभट भारे , देखि सरासन गवँहिं सिधारे ।।”
राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिवजी का धनुष राहु है , वब भारी है , कठोर है , यह सबको विदित है ।
बड़े योध्दा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर चुपके से चलते बने ,
उसे उठाना तो दूर रहा , छूने तक की हिम्मत न हुई ।
“सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा , राज समाज आजु जोइ तोरा ।
त्रिभुवन जय समेत बैदेही , बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ।।”
उसी शिव के कठोर धनुष को आज इस राज समाज में जो भी तोड़ेगा ,
तीनो लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकी जी बिना किसी विचार के हठपूर्वक वरण करेंगी ।
प्रण सुनकर सभी राजा ललचा उठें । जो वीरता के अभिमानी थें, वे मन में बहुत ही तमतमाए ।
कमर कस कर अकुला उठे और अपने इष्ठ देवों को सिर नवाकर चले ।
“तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं , उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं ।
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं , चाप समीप महीप न जाहीं।”
वे तमकर शिवजी के धनुष की ओर देखते है और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते है,
करोड़ों प्रकार से जोर लगाते है ,पर वह उठता ही नहीं।
जिन राजाओं के पास तनिक भी विवेक है , वे धनुष के पास जाते ही नहीं।
||जय श्री सीता राम||
Good
सुन सीय सत्य आशीष हमारी पूजहि मन कामना तुम्हरी
🌸🙏🌸