भगवद गीता उपदेश: विस्तृत व्याख्या सहित

 

परिचय:

भगवद गीता एक हिंदू धर्म का विश्व विख्यात और एक बहुत पवित्र और प्रेरणास्पद ग्रंथ है, जो महाभारत के भीष्म पर्व के अध्याय 23 से लेकर 40 तक स्थित है।

यह एक बहस भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुई, जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन अपने कर्तव्यों के विषय में भ्रमित और मानसिक दृष्टिकोण से कमजोर हो जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण उन्हें जो ज्ञान प्रदान करते हैं, उसका नाम ही “गीता” है।

गीता केवल धर्मिक ग्रंथ नहीं , बल्कि जीवन का मार्गदर्शक है। इसमें कर्म, भक्ति, ज्ञान, त्याग, आत्मा, और मोक्ष जैसे गूढ़ विषयों को सरल भाषा में उजागर किए गए हैं।

गीता के मुख्य उपदेश और उनके भावार्थ

1. आत्मा अजर-अमर है (अध्याय 2, श्लोक 20)
श्लोक:

“न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे.”

 

अर्थ: आत्मा न जन्म लेती है और न मरती है। यह नित्य, अजर, अमर और शाश्वत है। शरीर नष्ट हो सकता है लेकिन आत्मा नहीं।

व्याख्या: यह उपदेश हमें मृत्यु के भय से मुक्त करता है। शरीर परिवर्तनशील है, आत्मा शाश्वत है। इससे जीवन में दृढ़ता और भयहीनता आती है।

2. अपने कर्म करो, फल की चिंता मत करो (अध्याय 2, श्लोक 47)
श्लोक:

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”

 

अर्थ: तुम्हारा अधिकार कर्म करने में है, उसके फल में नहीं। इसलिए तुम कर्म का त्याग मत करो और फल की चिंता भी मत करो।

व्याख्या: यह गीता का सबसे प्रसिद्ध उपदेश है। हमें केवल अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, फल की चिंता हमें कमजोर बना देती है।

3. मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र और शत्रु है (अध्याय 6, श्लोक 5)
श्लोक:

“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥”

 

Human को अपने द्वारा आत्मा को ऊपर उठाना चाहिए, नीचे गिराना नहीं। आत्मा ही उसका मित्र है और वही शत्रु भी बन सकता है।

व्याख्या: हम अपने जीवन की दिशा स्वयं तय करते हैं। हमारी सोच, हमारा व्यवहार ही हमें ऊपर उठाते हैं या गिराते हैं।

4. स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति ही सुखी है (अध्याय 2, श्लोक 70)
श्लोक:

“आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्.
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥”

अर्थ: जैसे नदियाँ समुद्र में मिलकर भी उसे विचलित नहीं करतीं, वैसे ही इच्छाएँ स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य को प्रभावित नहीं करतीं।

व्याख्या: इच्छाओं का अंत नहीं होता। संतोष और धैर्य से ही शांति प्राप्त होती है। जो मनुष्य अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है, वही सच्चा ज्ञानी है।

 

5. समत्व योग कहलाता है (अध्याय 2, श्लोक 48)
श्लोक:
योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
                                                                 सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।”

अर्थ: हे अर्जुन! समत्व की भावना से कर्म करो – दोनों सफलता और असफलता में समान रहो। यही योग है।

व्याख्या: जीवन में हर स्थिति को समान दृष्टि से देखना ही योग है। हमें न सफलता पर गर्व करना चाहिए और न असफलता पर दुःखी होना चाहिए।

6. सब कुछ भक्ति से संभव है (अध्याय 9, श्लोक 22)
श्लोक:

“अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।”

अर्थ: जो मेरे भजन-ध्यान में लगे रहते हैं, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति मैं स्वयं करता हूँ।

व्याख्या: भक्ति मार्ग सबसे सरल और सुंदर मार्ग है। जो ईश्वर में विश्वास करता है और श्रद्धा से उसकी पूजा करता है, उसकी सभी समस्याओं का समाधान स्वयं ईश्वर करते हैं।

7. नाशवान संसार में मोह मत रखो (अध्याय 11, श्लोक 33)
श्लोक:

“तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्.”

हे अर्जुन! उठो, यश प्राप्त करो और राज्य का भोग करो। शत्रु पहले ही मुझसे मारे जा चुके हैं, तुम केवल निमित्त बनो।

व्याख्या:

हम सभी इस जीवन में एक माध्यम हैं। हमें अपने कर्म करने हैं, परंतु यह भी समझना है कि अंतिम नियंत्रण ईश्वर के हाथ में है।

8. जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है
शब्दों में नहीं, लेकिन समग्र गीता का यही सार है:

“जो हुआ, वह अच्छा हुआ। जो हो रहा है, वह भी अच्छा हो रहा है। और जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा।”

व्याख्या: यह भाव हमें हर परिस्थिति में शांत रहने और ईश्वर में विश्वास रखने की प्रेरणा देता है। हर स्थिति हमें कुछ सिखाने आती है।

गीता के 18 अध्यायों की झलक:

 

अर्जुन विषाद योग – अर्जुन का मानसिक द्वंद्व।

सांख्य योग – भेद आत्मा और शरीर का।

कर्म योग – निष्काम कर्म की प्रासंगिकता।

ज्ञान योग – ज्ञान द्वारा अज्ञान का नाश।

संन्यास योग – त्याग और कर्म का सम्बन्ध।

आत्मसंयम योग – योग द्वारा आत्म-उद्धार।

ज्ञान-विज्ञान योग – पूर्ण ज्ञान की विवेचना।

अक्षर ब्रह्म योग – ब्रह्म की प्राप्ति का मार्ग।

राज विद्या योग – द سطح_PE ज्ञान अज।

विभूति योग – भगवान की अद्वितीय विभूतियाँ।

विश्वरूप दर्शन योग – कृष्ण का विराट स्वरूप।

भक्ति योग – भक्ति की शक्ति।

काम ज्ञान विभाग योग – शरीर और आत्मा।

गुणत्रय विभाग योग – सत्त्व, रज, तम।

पुरुषोत्तम योग – परम पुरुष की महिमा।

दैवासुर सम्पद योग – दिव्य और आसुरी प्रवृत्तियाँ।

श्रद्धा त्रय विभाग योग – तीन प्रकार की श्रद्धा।

मोक्ष संन्यास योग – मुक्ति का अंतिम मार्ग।

गीता काजीवन में महत्व

प्रेरणा का स्रोत: मुश्किल दौर में मन को शांत करने और जीवन का उद्देश्य समझाने के लिए गीता अनुपम मार्गदर्शक है।

नेतृत्व के लिए: नेतृत्व, निर्णय-शक्ति, और नैतिकता के लिए गीता से बेहतर मार्गदर्शक नहीं।

व्यक्तित्व विकास: आत्म-विश्वास, कर्तव्यबोध और संयम के लिए गीता अत्यंत उपयोगी।

निष्कर्ष:

भगवद गीता केवल धार्मिक ग्रंथ ही नहीं, एक जीवन-दर्शन है। इसमें हर प्रश्न का उत्तर, हर समस्या का समाधान और हर व्यक्ति के लिए मार्गदर्शन है।

यदि हम गीता के उपदेशों को जीवन में अपनायें, तो न केवल व्यक्तिगत विकास संभव है, बल्कि समाज और राष्ट्र का उत्थान भी सुनिश्चित हो सकता है।

bhagwat geeta ka 15 adhyay

bhagwat geeta

bhagwat geeta 12 adhyay in hindi

nhagwat geeta 15 adhyay pdf

bhagwat geeta stand

 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top