धनुष भंग, श्री राम चन्द्र जी शिव जी के धनुष को कमल की डण्डी की भाँति तोड़े
“सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा ,हरषु बिषादु न कछु उर आवा।
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएं ठवनि, जुबा मृगराज लजाएँ।।”
गुरु के वचन सुनकर श्रीराम चन्द्र जी ने गुरु के चरणो में सिर नवाया। उनके मन मे न हर्ष हुआ न विषाद,
उनके खड़े होने की शान ऐसी थी कि जवान सिंह भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए।
“उदित उदय गिरि मंच ,पर रघुबर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब ,हरषे लोचन भृंग।।”
मंच रूपी उदयाचल पर श्री रघुनाथ जी रूपी बाल सूर्य के उदय होते ही सब संत रूपी कमल खिल उठे और नेत्र रूपी भंवरे हर्षित हो गये।
“सहजहि चले सकल जग स्वामी ,मत्त मंजु बर कुंजर गामी।
चलत राम सब पुर नर नारी ,पुलक पूरि तन भए सुखारी ।।”
समस्त जगत के स्वामी श्री राम जी सुन्दर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की सी चाल से स्वाभाविक ही चले।
श्री राम चन्द्र जी के चलते ही नगर भर के सब स्त्री पुरुष सुखी हो गये और उनके शरीर रोमांच से भर गये।
उन्होंने पितर और देवताओं की वंदना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया ।
यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाई श्री राम चन्द्र जी शिव जी के धनुष को कमल की डण्डी की भाँति तोड़ डालें।
“रामहि प्रेम समेत लखि, सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस ,बचन कहइ बिलखाइ।।”
श्रीराम चन्द्र जी को वात्सल्य प्रेम के साथ देखकर और सखियों को समीप बुलाकर सीता जी की माता
स्नेह वश बिलख कर बोलीं- हे सखी ये जो हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखने वाले हैं कोई भी
गुरु विश्वमित्र जी को समझाकर नहीं कहता कि ये बालक हैं इनके लिए ऐसा हठ अच्छा
नहीं जो धनुष रावण और बाण जैसे जगद्विजयी वीरों के हिलाए न हिल सका उसे तोड़ने के
लिए मुनि विश्वामित्र जी का राम जी को आज्ञा देना और राम जी का उसे तोड़ने के लिए चल देना
रानी को हठ जान पड़ा। इसलिए वे कहने लगीं कि गुरु विश्वमित्र जी को कोई समझाता भी नहीं।
तब सीता जी की माता को उनकी सखियां समझाती हैं कि हे सखी विधाता के लिखे को कोई जान नहीं सकता ।
तेजवान को कभी भी छोटा नहीं गिनना चाहिए। कामदेव ने फूलों का ही धनुष बाण लेकर समस्त
लोकों को अपने वश में कर रखा है। हे देवी ऐसा जानकर संदेह त्याग दीजिए ।
हे रानी सुनिए, राम चन्द्र जी धनुष को अवश्य ही तोड़ेगें।
“सखी वचन सुनि भै परतीती, मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती।
तब रामहि बिलोकि बैदेही सभय ,हृदयँ बिनवति जेहि तेही।”
सती के वचन सुनकर रानी को विश्वास हो गया और राम जी के प्रति उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया।
वे व्याकुल होकर मन ही मन प्रार्थना करने लगी। हे महेश भवानी मैने आपकी जो सेवा की है
उसे सुफल कीजिए और धनुष के भारी पन को हर लीजिए।
“देखि देखि रघुबीर तन, सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल, पुलकावली सरीर।।”
श्री रघुनाथ जी की ओर देखकर सीता जी धीरज धर कर देवताओं को मना रही हैं।
उनके नेत्रों में प्रेम के आंसु भरे हैं और शरीर में रोमांच हो रहा है।
अच्छी तरह नेत्र भरकर और श्रीराम जी की शोभा देखकर , फिर पिता के प्रण का स्मरण करके सीता जी का मन क्षुब्ध हो उठा
वे मन ही मन कहने लगी पिता जी ने बहुत कठिन हठ ठाना है ।
“प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना ,कृपानिधान राम सबु जाना।
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे ,चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें ।”
प्रभु की ओर देखकर सीता जी ने यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं।
कृपा निधान श्री राम जी सब जान गये। उन्होंने सीता जी को देखकर धनुष की ओर देखा जैसे गरुण जी छोटे सांप की ओर देखते हैं।
“गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हां ,अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ, पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।”
मन ही मन गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया जब धनुष को हाथ में
लिया, तब वह बिजली की तरह चमका और आकाश में मंडल जैसा हो गया।
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।
धनुष को लेते चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं देखा ।
उसी क्षण श्रीराम जी ने धनुष को बीच से तोड़ डाला।
भयंकर कठोर ध्वनि से सब लोक भर गये।
“भरे भुवन घोर कठोर रव ,रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महिअहि ,कोल कूरुम कलमले।।
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें ,सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी, जयति बचन उचारहीं।।”
घोर, कठोर शब्द से सब लोक भर गये, सूर्य के घोडे मार्ग छोड़कर चलने लगे। दिग्गज चिग्घाड़ने लगे,
धरती डोलने लगी, शेष वाराह और कच्छप कलमला उठे। देवता, राक्षस और मुनि कानोंपर हाथ
रखकर सब व्याकुल होकर विचारने लगे। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब सबको निश्चय हो गया
कि श्रीराम जी ने धनुष तोड़ डाला , तब सब श्रीरामचन्द्र जी की जय बोलने लगे।
|| जय श्रीसीताराम ||
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