श्री रामचन्द्र जी का परशुराम जी से क्षमा प्रार्थना

श्री रामचन्द्र जी का परशुराम जी से क्षमा प्रार्थना

 

लक्ष्मण जी का परशुराम जी के प्रति असभ्य व्यवहार को लेकर श्री राम जी परशुराम जी से क्षमा मागते हुए कहते हैं

कि यदि बालक कुछ चपलता भी करते हैं तो गुरु, पिता और माता मन में आनंद से भर जाते हैं।

अत: इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिए। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं।

“राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने ,कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने।

हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी ,राम तोर भ्राता बड़ पापी।।”

श्रीराम चन्द्र जी के वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े।

इतने में लक्ष्मण जी कुछ कहकर फिर मुस्कुरा दिये उनको हंसते देख कर परशुराम जी के नख से शिखा तक क्रोध छा गया।

उन्होंने कहा हे राम तेरा भाई बड़ा पापी है। यह शरीर से गोरा है पर हृदय का बड़ा काला है।

यह विशमुख है, दुधमुहां नहीं । स्वभाव से ही टेढ़ा है, तेरा अनुसरण नहीं करता। यह नीच मुझे काल के समान नही देखता।

“लखन कहेउ हँसि सुनहु, मुनि क्रोध पाप कर मूल।

जेहि बस जन अनुचित करहिं, चरहिं बिस्व प्रतिकूल।।”

लक्ष्मण जी ने हंसकर कहा हे मुनि- सुनिए, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं

और विश्व भर के प्रतिकूल चलते हैं। हे मुनिराज मैं आपका दास हूँ।

अब क्रोध त्याग कर दया कीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जाएगा।

खड़े-खड़े पैर दुखने लगे होंगे बैठ जाइए।

यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो तो कोई उपाय किया जाए और किसी बड़े गुणी कारीगर को बुलवाकर जुड़वा दिया जाए।

लक्ष्मण जी के बोलने से जनक जी डर जाते हैं और कहते हैं , बस चुप रहिए अनुचित बोलना

अच्छा नही तब श्री राम चन्द्र जी पर एहसान जनाकर परशुराम जी बोले तेरा छोटा भाई समझकर मै इसे बचा रहा हूँ

यह मन का मैला और शरीर का कैसा सुन्दर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घड़ा।

“सुनि लक्षिमन बिहसे ,बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि, परिहरि बानी बाम।।”

यह सुनकर लक्ष्मण जी फिर हंसे तब श्री राम चन्द्र जी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा

जिससे लक्ष्मण जी सकुचाकर विपरीत बोलना छोड़कर गुरु जी के पास चले गये।

“अति बिनीत मृदु सीतल बानी, बोले राम जोरि जुग पानी।parsuram ji 2

सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना, बालक बचनु करिअ नहिं काना।।”

श्री राम चन्द्र जी दोनो हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ सुनिये, आप तो स्वभाव से सुजान हैं।

आप बालक के वचन पर कान न कीजिए । बर्रै और बालकका एक स्वभाव है। संतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते।

फिर उसने तो कुछ काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ आपका अपराधी तो मैं हूँ।

अत: हे स्वामी कृपा , क्रोध वध और बन्धन, जो कुछ करना हो दासकी तरह ( अर्थात दास समझकर) मुझ पर कृपा कीजिए।

जिस प्रकार से शीघ्र आपका क्रोध दूर हो, हे मुनि राज बताइये मै वही उपाय करूँ।

“कह मुनि राम जाइ रिस कैसें ,अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें।

एहि के कंठ कुठार न दीन्हा ,तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा।।”

मुनि ने कहा हे राम क्रोध कैसे जाए अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है।

इसकी गर्दन पर मैने कुठार न चलाया तो क्रोध करके किया ही क्या। हाथ चलता नही क्रोध से छाती जली जाती है

राजाओं का यह कुठार भी कुंठित हो गया । विधाता विपरीत हो गया। इससे मेरा स्वभाव बदल गया। नहीं तो भला मेरे हृदय में किसी भी समय कृपा कैसी ?

श्री राम चन्द्र जी ने कहा हे मुनीश्वर क्रोध छोड़िए ।

आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है जिस प्रकार आपका क्रोध जाए हे स्वामी वही कीजिए।

आपको कुठार , बाण और धनुष धारण किए देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया।

वह आपका नाम तो जानता था पर उसने आपको पहचाना नही। अपने वंश के स्वभाव के अनुसार उसने उत्तर दिया।

यदि आप मुनि की तरह आते तो हे स्वामी- बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिए।

हे नाथ हमारी और आपकी बराबरी कैसी?  कहाँ मेरा राममात्र छोटा सा नाम और कहां आपका परशु सहित बड़ा नाम ।

“देव एकु गुनु धनुष हमारे ,नव गुन परम पुनीत तुम्हारे।parsurm ji

सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे, छमहु बिप्र अपराध हमारे।।”

हे देव हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र नौ गुण – शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता , ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता । हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं । हे बिप्र हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए।

“बार बार मुनि बिप्रबर ,कहा राम सन राम।

बोले भृगुपति सरुष ,हसि तहूँ बंधु सम बाम।”

श्री राम चन्द्र जी ने परशुराम जी को बार बार मुनि और विप्रवर कहा तब भृगुपति परशुराम जी कुपित होकर बोले

तू भी अपने भाई के समान टेढ़ा ही है तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है।

मैं जैसा विप्र हूँ तूझे सुनाता हूँ। धनुष को स्त्रुवा , बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यंत भयंकर अग्नि जान।

                                                                                ||जय श्री सीता राम||

 

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