गुरु विश्वामित्र आगमन, ताड़का तथा मारीच वध
“जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं । अति मारीच सुबाहुहि डरहीं ।।
देखत जग्य निसाचर धावहिं । करहिं उरद्रव मुनि दुख पावहिं ।।”
गुरु विश्वामित्र के आश्राम में जब मुनि लोग जप , यज्ञ , योग करते थे तब मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षर बहुत ही उपद्रव मचाते थे ।
जिससे सारे ऋषि – मुनि बहुत परेसान हो जाते थे । गुरु विश्वामित्र के मन में चिन्ता छा गयी ये पापी राक्षस भगवान के बिना नहीं मरेगें ।
तब मुनि ने सोचा इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों के दर्शन करुँ और विनती करके दोनो भाइयों को ले आऊँ ।
“बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार ।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार ।।”
गुरु विश्वामित्र ने बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए राजा दशरथ के दरबार में जाने में तनिक भी देर नही लगाई । सरयू जी के जल में स्नान करके वे राजा दरबार में जा पहुँचे ।
मुनि आगमन सुना जब राजा । मिलन गयउ लै बिप्र समाजा ।।
करि दंडवत मुनिहि सनमानी । निज आसन बैठारेन्हि आनी ।।
राजा दशरथ ने जब मुनि के आने के बारे में सुना , तब वे ब्राहाम्णों को साथ लेकर मिलने गये और दण्डवत् करके मुनियों का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया ।
फिर राजा ने चारों पुत्रों को मुनि प्रणाम करने को कहा । इसके बाद राजा ने मुनि से उनके आगमन का कारण पुछा ।
“असुर समूह सतावहिं मोहि । मैं जाचन आयउँ नृप तोही ।।
अनुज समेत देहु रघुनाथा । निसिचर बध मैं होब सनाथा ।।”
मुनि ने कहा -हे राजन ! राक्षसों के समूह नुझे बहुत सताते है । इसलिए मैं तुम से कुछ माँगने आया हूँ।
छोटे भाई सहित श्रीरघुनाथ जी को मुझे दे दो । राक्षसो के मारे जाने पर मैं सुरक्षित हो जाऊँगा ।
मुनि की इस अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का मन काँप उठा और उनके मुख की कान्ति फीकी पड़ गयी ।
राजा ने मुनि से कहा हे ब्राहामण ! मैने चौथेपन में चार पुत्र पाये है , आप ने यह बात कहने से पहले विचार नही किया ?
तब वसिष्ठ जी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया , जिससे राजा का संदेह समाप्त हुआ ।
“सौंपे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस ।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस ।।”
राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्र को ऋषि के हवाले कर दिया । फिर प्रभु माता के महल में गये और उनके चरणों में सिर नवाकर चले ।
श्याम और गौर वर्ण के दोनो भाई परम सुन्दर है । विस्वामित्र जी को महान निधि प्राप्त हो गयी है । ऋषि सोचते है कि – मैं जान गया कि प्रभु ब्राहामणों के परम भक्त है। मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया ।
” चले जात मुनि दीन्हि देखाई । सुनि ताड़का क्रोध करि धाई ।।
एकहीं बान प्रान हरि लीन्हा । दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा ।।”
मार्ग में जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया । मुनि के शब्द सुनते ही ताड़का क्रोध में दौड़ी ।
श्री राम जी ने एक ही बाण में उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको अपने दिव्य स्वरुप दिखाया ।
इसके बाद ऋषि विश्वामित्र ने यह जानते हुए कि प्रभु के सारी विद्दायों का भण्डार है , उन्हे एसी विद्दा दी , जिससे भूख प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो ।
“आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि ।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि ।।”
सब अस्त्र – शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु श्री राम जी को अपने आश्रम ले गये ,और उन्हे भक्तिपूर्वक कन्दमूल और फल का भोजन कराया ।
अगले दिन प्रभु राम जी ने मुनियों से कहा – आप निडर होकर यज्ञ कीजिए । यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे ।
“सुनि मारीच निसाचर क्रोही । लै सहाय धावा मुनिद्रोही ।
बिनु फर बान राम तेहि मारा । सत जोजन गा सागर पारा ।।”
राक्षस मारीच ने जब ऋषियों को यज्ञ करते हुए सुना तो अपने सहायको के साथ मुनियों पर आक्रमण करने के लिए दौड़ा ।
तब श्रीराम जी ने मारीच को बिना फल वाला बाण उसको मारा , जिससे वह सौ योजन के विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा ।
“पावक सर सुबाहु पुनि मारा । अनुज निसाचर कटुक सँघारा ।।
मारि असुर व्दिज निर्भयकारी । अस्तुति करहिं देव मुनि झारी ।।”
फिर सुबाहु को अग्नि बाण मारा । इधर छोटे भाई लक्ष्मण जी ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला ।
इस प्रकार श्रीराम जी ने राक्षसोंं को मारकर ब्राह्रामणों को निर्भय कर दिया । तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे ।
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया । रहे कीन्हिं बिप्रन्ह पर दाया ।।
भगति हेतु बहु कथा पुराना । कहे बिप्र जद्दपि प्रभु जाना ।।
श्रीरघुनाथ जी ने वहाँ कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों पर दया की । भक्ति के कारण ब्रह्मणों ने श्रीराम जी को बहुत सारी कथाएँ सुनायीं , जिनके बारें में प्रभु पहले से जानते थे ।
।।जय श्री सीता राम।।
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