गौतम मुनि की पत्नी अहिल्या का उद्धार
।।राम सीया राम सीया राम जय जय राम ।।
“नाम है तेरा तारण हारा ,कब तेरा दर्शन होगा ।
जिनकी प्रतिमा इतनी सुंदर वो कितनी सुंदर ।।
तुमनें तारे लाखों प्राणी ,यह संतों की वाणी है।।
यह संतों की वाणी है ,तेरी छवि पर वो मेरे भगवन ।।
तेरी छवि पर वो मेरे भगवन ,यहा दुनियाँ दीवानी है ।।
यहा दुनियाँ दीवानी है ,भाव से तेरी पूजा रचाऊं ।।
भाव से तेरी पूजा रचाऊं ,जीवन मे मंगल होगा ।।
जीवन मे मंगल होगा ,जिनकी प्रतिमा इतनी सुंदर ।।
जिनकी प्रतिमा इतनी सुंदर ,वो कितना सुंदर होगा ।।
वो कितना सुंदर होगा ,जिनकी प्रतिमा इतनी सुंदर ।।
जिनकी प्रतिमा इतनी सुंदर ,वो कितना सुंदर होगा ||”
ताड़का , मारीच और सुबाहु का वध करने के बाद वन की तरफ जाते हुए , रास्ते में उन्हे गौतम मुनि का आश्रम दिखा –
“आश्रम एक दीख मग माहीं । खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं ।।
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखीन। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ।।”
उस आश्रम में पशु- पक्षी , कोई भी जीव -जन्तु नहीं था ।
पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने उस पत्थर के बारे में पुछा , तब मुनि ने राम जी को विस्तार पूर्वक सब कथा सुनाई –
“गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर ।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ।।”
मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र जी राम जी को बताते है कि, गौतम मुनि की स्त्री अहिल्या को श्राप मिला था ।
जिस के कारण वह एक पत्थर की शिला बन गयी है तथा बडे़ धीरज से आप के चरणकमलों की धुलि चाहती है ।
हे रघुवीर ! इस पर कृपा कीजिए ।
“परसत पद पावन सोक नसावन प्रकट भई तपपुंज सही ।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही ।।
अति प्रेम अधीरा पुकल सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही ।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ।। “
तब श्री राम जी ने अपने पवित्र चरणों से उस शिला को स्पर्श किया , प्रभु के चरणों का स्पर्श पाते ही वह तपोमूर्ति अहिल्या प्रकट हो गयी ।
भक्तों को सुख देने वाले श्रीरघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गयी ।
वह प्रभु के प्रेम में इतनी अधीर और खुश हो गयी कि उसे कहने के लिए कोई शब्द समझ नहीं आ रहा था ।
वह प्रभु के चरणों से लिपट गयी और उनके दोनों नेत्रों से जल की धारा बहने लगी ।
“धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाईं ।
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ।।
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई ।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई ।।”
अहिल्या ने अपने मन में धीरज रख कर प्रभु को पहचाना ,और श्रीरघुनाथजी की कृपा प्राप्त की ।
तथा अत्यन्त निर्मल वाणी से प्रभु की स्तुति प्रारम्भ की – हे प्रभु आप की जय हो ! मैं अपवित्र स्त्री हूँ ,
और हे प्रभु आप जगत को पवित्र करने वाले , भक्तों को सुख देने वाले और रावण के शत्रु है ।
अहिल्या ने कहा – हे कमल नयन ! हे संसार के भय से छुड़ाने वाले ! मैं आप की शरण आयी हूँ , मेरी रक्षा कीजिए ।
“मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना ।
देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना ।।
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना ।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना ।।”
अहिल्या ने कहा हे ! प्रभु मुनि ने मुझे जो श्राप दिया , बहुत अच्छा किया । जिसके कारण मैने श्री हरि को नेत्र भर देख लिया । हे प्रभु !मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँ , मेरी एक विनती है । हे नाथ ! मै और कोई वर नहीं माँगती , केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मन रुपी भौंरा आपके चरण कमल की रज के प्रेम रुपी रस का सदा पान करता रहे ।
“जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी ।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी ।।
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी ।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी ।।”
अहिल्या प्रभु के चरणों का बखान करते हुए कहती है , कि जिन चरणों से परम पवित्र देव नदी गंगाजी प्रकट हुईं ,
तथा जिन्हें शिवजी ने अपने मस्तक पर धारण किया और जिन चरण कमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं ,
उन्ही चरणों को कृपालु हरि ने मेरे सिर पर रखा हैं । इस प्रकार बार – बार भगवान् के चरणों में गिरकर ,
अपने मन के अनुसार वर को पाकर गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या आनन्द पूर्वक पती लोक को चली गयी ।
“अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल ।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल ।।”
प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ऐसे दीनबन्धु और बिना ही कारण दया करने वाले है ।
तुलसीदास जी कहते है , हे मन ! तू कपट – जंजाल छोड़कर प्रभु राम जी का भजन कर ।
।। जय श्री सीता राम ।।
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