लक्ष्मण – परशुराम जी का संवाद

“तेहि अवसर सुनि सिवधनु भंगा। आयहु भृगकुल कमल पतंगा।।”parasuram

शिवजी के धनुष का टूटना सुनकर भृगुकुल रूपी कमल के सूर्य परशुराम जी आए जिन्हें देखकर

सब राजा सकुचा गये, मानो बाज के झपटने पर बटेर छुप गये हैं।

गोरे शरीर पर भस्म बड़ी फब रही है और विशाल ललाट पर त्रिकुंड विशेष शोभा दे रहा है।

“सीस जटा ससिबदनु सुहावा ,रिसबस कछुक अरुन होइ आवा।

भृकुटी कुटिल नयन रिस राते, सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते।।”

 

सिर पर जटा है , सुन्दर मुख चन्द्र क्रोध के कारण कुछ लाल हो आया है भौहें टेढ़ी हैं और आँखें क्रोध से लाल हैं सहज ही देखते हैं

तो भी ऐसा जान पड़ता है मानो क्रोध कर रहे हैं।

बैल के समान उँचे कंधे हैं छाती और भुजाएं विशाल हैं सुन्दर यज्ञोपवीत धारण किये , माला पहने और मृगचर्म लिए हैं

कमर में मुनियों का वस्त्र और दो तरकस बाँधें हैं हाथ में धनुष बाण और सुन्दर कंधे पर फरशा धारण किए हैं।

परशुराम जी भयानक वेश देखकर सब राजा भय से व्याकुल उठ खड़े हुए और

पिता सहित अपना नाम कह कह कर सब दण्डवत प्रणाम करने लगे।

“जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी ,सो जानइ जनु आइ खुटानी।
जनक बहोरि आइ सिरु नावा, सीय बोलाइ प्रनामु करावा।।”

परशुराम जी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गयी

फिर जनक जी ने आकर सिर नवाया और सीता जी को बुलाकर प्रणाम कराया।

परशुराम जी ने सीता जी को आशीर्वाद दिया। फिर सखियां उनको अपने मण्डली में ले गईं।

फिर विश्वामित्र जी आकर मिले और उन्होंने दोनो भाइयों को उनके चरण कमलों पर गिराया।

“राम लखन दशरथ के ढोटा, दीन्हि असीस देखि भल जोटा।

रामहि चितइ रहे थकि लोचन ,रूप अपार मार मद मोचन।।”

विश्वामित्र जी ने कहा ये राम और लक्ष्मण राजा दशरथ के पुत्र हैं जिनकी सुन्दर जोड़ी देखकर परशुराम जी ने आशीर्वाद दिया।

कामदेव के भी मद को छुड़ाने वाले श्रीराम चन्द्र जी के अपार रूप को देखकर उनके नेत्र थकित हो गए।

सब जानते हुए भी अनजान बनकर जनक जी से पूछते हैं कि कहो, यब बड़ी भीड़ कैसी है?

उनके शरीर में क्रोध छा गया।

“समाचार कहि जनक सुनाए ,जेहि कारन महीप सब आए।

सुनत बचन फिरि अनत निहारे, देखे चापखंड महि डारे।।”

जिस कारण सब राजा आए थे जनक ने वह सब समाचार कह सुनाए जनक के वचन सुनकर परशुराम जी ने

फिर कर दूसरी ओर देखा तो धनुष के टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हुए दिखाई दिये।

 

“अति रिस बोले बचन कठोरा ,कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा।

बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू उलटउँ ,महि जहँ लहि तव राजू।।”

अत्यंत क्रोध में भरकर परशुराम जी बोले- हे मूर्ख राजन् – बता धनुष किसने तोड़ा?

उसे शीघ्र दिखा नही तो अरे मूढ़ आज मैं जहाँ तक तेरा राज्य है, वहाँ तक की पृथ्वी उलट दूँगा।

राजा को अत्यंत डर लगा जिसके कारण वे उत्तर नहीं देते हैं। सीता जी की माता मन में पछता रहीं हैं कि हाय विधाता

ने अब बनी बनायी बात बिगाड़ दी। परशुराम जी का स्वभाव सुनकर सीता जी भी डर गई।

तब श्रीराम चन्द्र जी सब लोगों को भयभीत देखकर और सीता जी को

डरी हुई जानकर बोले – उनके हृदय में न कुछ हर्ष था, न विषाद -।।

“नाथ संभुधनु भंजनिहारा ,होइहि केउ एक दास तुम्हारा ।
आयसु काह कहिअ किन मोही ,सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।”

हे नाथ शिव जी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा।

क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते. यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले – सेवक वह है जो सेवा का काम करे ,

शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए हे राम सुनो, जिसने शिव जी के धनुष को तोड़ा है

वह शहस्त्रबाहु के समान हमारा शत्रु है।

मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मण जी मुस्कुराए और परशुराम जी का अपमान करते हुए बोले –

“बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं ,कबहुँ न असि रिसि कीन्हिं गोसाईं।

एहि धनु पर ममता केहि हेतू ,सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।”parsuram ji

हे गोसाईं लड़कपन में हमने बहुत सी धनुहिइयाँ तोड़ डालीं किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया।

इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है?

यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुराम जी कुपित होकर कहने लगे-

“रे नृप बालक कालबस ,बोलत तोहि न सँभार ।

धनुहिं सम तिपुरारि धनु ,बिदित सकल संसार।।”

अरे राजपुत्र, काल के वश होने से तुझे बोलने मे कुछ भी होश नहीं है

सारे संसार में बिख्यात शिव जी का यह धनुष क्या धनुहिं के समान है?

लक्ष्मण जी ने हँसकर कहा हे देव सुनिए हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं

पुराने धनुष को तोड़ने में क्या हानि लाभ। श्रीराम जी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था

फिर यह तो छूते ही टूट गया। इसमें रघुनाथ जी का कोई दोष नहीं है। मुनि आप बिना ही कारण किसलिए क्रोध करते हैं।

परशुराम जी अपने फरशे की ओर देखकर बोले अरे दुष्ट तूने मेरा स्वभाव नहीं

सुना अपनी भुजाओं के बल से मैने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। ।

||जय श्री सीता राम nameste||

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